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July 28, 2017

Hindi Article-Amarnath Yatra


अमरनाथ यात्रा, कश्मीर में अशांति और सांप्रदायिकता का ज़हर -राम पुनियानी बुरहान वानी की पिछले वर्ष (2016) कश्मीर में मौत के बाद से, घाटी में हालात बहुत खराब हुए हैं। वहां लगातार विरोध प्रदर्शन जारी हैं और इन विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस द्वारा प्रयोग की गई पैलेट्स ने कई लोगों की दृष्टि छीन ली है। इस बीच जुलाई 2017 में अमरनाथ तीर्थयात्रियों पर हमले की घटना ने घाव पर नमक छिड़कने का काम किया है। एक बस का टायर फूट जाने की वजह से वह काफिले में पीछे रह गई। आतंकियों को मौका मिल गया। उन्होंने पहले पुलिस के बंकर पर हमला किया और फिर अंधाधुंध गोलियां चलाते हुए बस का पीछा किया। बस में गुजरात से आए तीर्थयात्री थे, जिनमें से सात मारे गए। मरने वालों में पांच महिलाएं शामिल थीं। बस के ड्रायवर सलीम ने हिम्मत दिखाते हुए, घायल होने के बावजूद, बस चलाना जारी रखा। इससे बस में सवार अन्य यात्रियों की जान बच गई। अमरनाथ यात्रा, हिन्दुओं की सबसे पवित्र तीर्थयात्राओं में से एक है। अमरनाथ, बर्फ का बना एक शिवलिंग है जो कि घाटी में एक गहरी गुफा में स्थित है। इसे 1850 के आसपास एक मुस्लिम चरवाहे ने खोजा था। तब से वहां तीर्थयात्रियों का जाना शुरू हो गया। यात्रा से संबंधित अधिकांश प्रबंध मुसलमानों द्वारा किए जाते हैं और यह देश की सांझा संस्कृति का एक और सबूत है। यही कश्मीरियत है - कश्मीर की संस्कृति, जो बौद्ध धर्म, वेदांत और सूफी परंपराओं का मिश्रण है। कश्मीर में अतिवाद बढ़ने के बावजूद, अमरनाथ यात्रा जारी रही, यद्यपि उसे कड़ी सुरक्षा प्रदान की जाने लगी। इसके पहले यात्रा पर 2001, 2002 और 2003 में भी हमले हुए थे। क्या यह केवल संयोग की बात है कि उन वर्षों में भी देश में एनडीए का शासन था। भाजपा के पहलवानी किस्म के राष्ट्रवाद और इस तरह की घटनाओं के बीच क्या रिश्ता है, इसका पता लगाया जाना चाहिए। कश्मीर के मुद्दे का सांप्रदायिकीकरण करने के लिए पाकिस्तान से प्रेरित अतिवादी और अलकायदा जैसे तत्व ज़िम्मेदार हैं। इन्होंने इस क्षेत्र में घुसपैठ बना ली है। इसके बावजूद भी वे कश्मीर की मूल सांझा संस्कृति को समाप्त नहीं कर सके हैं। यही कारण है कि जब भी अमरनाथ यात्री किसी प्राकृतिक आपदा के कारण रास्ते में फंस जाते हैं तब मुसलमान ही उनकी मदद करते हैं। अमरनाथ यात्रा पर हमले की घटना की कश्मीर और देशभर में कड़ी निंदा हुई। इससे पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया। प्रधानमंत्री मोदी, जिन्हें किसी पहलू खान या जुनैद की मौत के बारे में ट्यूट करने में बहुत समय लग जाता है, ने बिना किसी देरी के इस घटना की निंदा की। और यह बिलकुल उचित था। दूसरी ओर, हिन्दू राष्ट्रवादियों के पास शायद एक ही काम बचा है। उन्हें सिर्फ देश की उदारवादी और प्रजातांत्रिक शक्तियों का मज़ाक उड़ाना आता है। भाजपा प्रवक्ता जी.व्ही.एल. नरसिंहाराव ने ट्वीट किया, ‘‘क्या अमरनाथ मौतों के खिलाफ नॉट इन माई नेम गैंग विरोध प्रदर्शन करने जा रही है या वे केवल अखलाकों, जुनैदों और पहलू खानों के मामले में विरोध करते हैं, भगवान शिव के भक्तों के मामले में नहीं’’। यह ट्वीट जुनैद की मौत के विरोध में जंतर-मंतर में जंगी प्रदर्शन के बाद आया। ऐसे प्रचारित किया जा रहा है कि उदारवादी कार्यकर्ता और चिंतक, केवल मुसलमानों पर अत्याचार के मामलों में अपना विरोध व्यक्त करते हैं। यह बात मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद चले पुरस्कार वापसी के दौर के बाद से और ज़ोरशोर से कही जाने लगी। पुरस्कार वापसी तब शुरू हुई जब मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, मुसलमानों के बारे में सोच में गुणात्मक परिवर्तन आया। जिस तरह से अखलाक को मारा गया और जिस आरोप में उसकी जान ली गई, उसने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया। ट्रेन से यात्रा कर रहे जुनैद की हत्या से भी प्रजातांत्रिक मूल्यों को गहरी क्षति पहुंची। जुनैद की हत्या के बाद देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए। अमरनाथ यात्रियों की मौत पर दुख प्रकट करने के लिए भी देशभर में लोग आगे आए। राव जैसे भाजपा प्रवक्ता न जाने क्या हासिल करना चाहते हैं? इस समय तो भाजपा और उसके साथियों का लक्ष्य यह धारणा फैलाना है कि देश में हिन्दू बहुसंख्यक परेशान हाल हैं और प्रताड़ित किए जा रहे हैं, जबकि मुसलमानों का तुष्टिकरण हो रहा है। हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति पहले मुसलमानों के विरूद्ध दुष्प्रचार कर पुष्ट हुई और उसके बाद उसने ईसाइयों को अपने निशाने पर लिया। यह राजनीति उन सभी लोगों को बदनाम करना चाहती है जो अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए खड़े होते हैं। उदारवादी प्रजातांत्रिक शक्तियों की आलोचना का उद्देश्य विरोध के स्वरों को दबाना है ताकि असहिष्णुता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के उल्लंघन पर आधारित भाजपा-मार्का राजनीति और मज़बूत हो सके। अब तक वे लोग यह कहते आए थे कि देश में अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण होता रहा है। अगले चरण में वे यह कह रहे हैं कि बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के साथ भेदभाव हो रहा है। यह एक बहुत धूर्ततापूर्ण चाल है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस आरोप में कोई दम नहीं है कि देश में हिन्दू बहुसंख्यक प्रताड़ित हैं। परंतु उनके प्रचार ने लोगों के दिलों-दिमाग में कुछ जगह तो बनाई है। भारत में मुसलमानों की आर्थिक हालत सच्चर समिति की रपट से जाहिर होती है। इस रपट से हमें पता चलता है कि स्वाधीनता के बाद के 70 वर्षों में मुसलमानों की स्थिति में गिरावट आती गई है। हिंसा के शिकार व्यक्तियों में से 80 प्रतिशत मुसलमान होते हैं जबकि सन 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की आबादी में उनका प्रतिशत केवल 14.1 है। आतंकी हिंसा के अधिकांश मामलों में भी मुसलमान युवकों को गिरफ्तार किया जाता है और उनमें से अधिकांश बाद में सबूतों के अभाव में रिहा हो जाते हैं। मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भी कमी आ रही है जो कि लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की घटती संख्या से जाहिर है। सरकारी क्षेत्र में उच्च स्तर के अधिकांश पदों पर बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य हैं। यह कोई नहीं कहता कि बहुसंख्यक समुदाय के सभी सदस्य बहुत आनंद की ज़िंदगी बिता रहे हैं। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि आर्थिक मानदंडों पर उनकी स्थिति मुसलमानों से बेहतर है। हिन्दू समुदाय के खतरे में होने की बात इसलिए कही जा रही है ताकि समाज को और ध्रुवीकृत किया जा सके। (अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)